"छायावाद" हिंदी साहित्य का इतिहास
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छायावाद
यह दौर सामंतवादी जड़ों को उखाड़ने एवं रूढ़ियों से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्ति का दौर था ।
मुख्यता इस आंदोलन की शुरुआत फ्रांस से हुई थी फ्रांस
में सफलता पाने के बाद यह धीरे-धीरे जर्मनी, इंग्लैंड से होते हुए भारत पहुंचा । भारत में इस आंदोलन को रविंद्र नाथ जी ने शरण दी और इसे आगे बढ़ाया चूंकि यह आंदोलन पाश्चात्य देशों से आया था अतः
शुरुआती दौर में इसमें अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों की प्रति(छाया) नजर आती थी। जिस वजह
से इसे स्वच्छंदतावाद अथवा छायावादी कहा गया परंतु बाद में इस नाम पर विभिन्न शोध
हुए।
छायावाद साहित्य में ऐसा दौर था जिसमें व्यक्ति ने स्वतंत्र रूप से पुराने बंधनों से मुक्त होकर एक नई कविता का उद्घोष किया। 'साहित्य तत्कालीन समाज का दर्शन होता है 'अतः हम यह कह सकते हैं कि साहित्य पर तत्कालीन घटनाओं, परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। फिर वह घटना सामाजिक हो ,आर्थिक हो अथवा राजनीतिक हो वह साहित्य का हिस्सा होगी ।
ध्यान योग्य हैं यदि कोई
घटना किसी काल में घटित हो रही है तो वह उसी समय काल का परिणाम नहीं होती
उस घटना के पीछे ऐतिहासिक भूमिका होती है। अत: यह कहना
तर्कसंगत होगा की छायावाद जिसकी शुरुआत बीसवीं शताब्दी के दूसरे
दशक में होती है उसकी भूमिका द्विवेदी युग से ही बननी शुरू हो गई होगी।
तात्कालिक ऐतिहासिक परिस्थितियां -
19वीं शताब्दी के दूसरे दशक में भारत के साथ-साथ विश्व के विभिन्न देशों में हलचल मची हुई थी क्योंकि यह दौर विश्व युद्ध का था जो सन 1914 से शुरू हो चुका था। इस दौरान विश्व पटल में काफी हलचल देखने को मिली जिसका प्रभाव साहित्य पर पड़ना लाजमी है।
छायावादी युग भारत के लिए अस्मिता की खोज का युग था दासता के कारण जनता रूड़ि ग्रस्त हो गई थी, पाश्चात्य ढंग की शिक्षा ने देश के बुद्धिजीवियों के सामने एक नया अवसर प्रदान किया। ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार का भी भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा दासता के साथ-साथ सांस्कृतिक आक्रमण ने यहां के चिंतकों को अधिक प्रभावित किया तत्पश्चात राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती ,रामकृष्ण परमहंस ,विवेकानंद, तिलक एवं महात्मा गांधी जैसे आंदोलनकारी सामने आए और उन्होंने अपने भारतीय परंपरा के तत्वों को खोज कर नए जीवन के अनुरूप ढालने का प्रयास किया ।
छायावादी कवियों में विदेशी शासन का विरोध एवं विद्रोह व्यापक रूप से दिखाई देता है। जिसके मूल में तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक कारण है ,छायावादी युग ने भारतीयों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । यह योग्य भारत के लिए आधुनिकीकरण का युग है किंतु यह प्रक्रिया उसकी आंतरिक शक्ति से प्रेरित ना होकर विदेशी शासन के परिणाम स्वरूप आयी ।भारत में जो भी परिवर्तन हुए वह सभी अंग्रेजों ने अपनी शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए किए थे ।
तथ्य -
1882 -थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना
1893 - अमेरिका के शिकागो में आयोजित प्रथम विश्व धर्म सम्मेलन
1898 - बनारस में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना
1905- मुंबई में भारत सेवक संघ की स्थापना
1906- मुंबई में प्रथम भारतीय महिला विश्वविद्यालय की स्थापना
1920- मुंबई में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना
1932- महात्मा गांधी द्वारा हरिजन सेवक संघ की स्थापना एवं एक पत्रिका “हरिजन” का प्रकाशन
कुछ पत्रिकाएं –
मॉडल रिव्यू 1907, मुंबई क्रॉनिकल 1913., न्यू इंडिया 1916 ,यंग इंडिया 1919. ,हरिजन 1933. ,इंडिपेंडेंस 1919 , हिंदुस्तान टाइम्स 1923. , अल हिलाल 1912. ,अल विलाग ,गदर 1913. , प्रताप 1910., नवभारत 1934 .,सह्याद्री 1935 .,भारत मित्र, हिंदुस्तान 1941. ,नेशनल हेराल्ड 1938 .।
प्रेस -
ब्रिटिश सरकार द्वारा 4 समाचार एजेंसियों की स्थापना की गई जिनमें प्रथम “रायटर” थी इसकी स्थापना 1860 में हुई इसके बाद एसोसिएट प्रेस ऑफ इंडिया की स्थापना 1905, फ्री प्रेस न्यूज सर्विस की स्थापना 1927 एवं यूनाइटेड प्रेस आफ इंडिया की स्थापना 1934 में की गई । इन समाचार एजेंसी से निकलने वाले पत्र एवं पत्रिकाओं का प्रभाव सहित्य पर ही नहीं वरन देश के आंदोलन को भी इससे गति मिली।
हिंदी में छायावाद -:
सन 1920 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका में पंडित मुकुटधर पांडेय ने ‘हिंदी में छायावाद' नामक शीर्षक से एक लेख प्रकाशित करवाया । मुकुटधर पांडेय को छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोक्ता स्वीकार किया जाता है। दूसरी ओर वही सन 1920 में सुशील कुमार ने सरस्वती पत्रिका में हिंदी में छायावाद शीर्षक से एक संवादात्मक लेख प्रकाशित करवाया इस संवाद में 4 लोगों ने हिस्सा लिया।
1. सुशीला देवी 2. हरीकिशोर बाबू 3.राम नरेश जोशी तथा 4.सुमित्रानंदन पंत
इस कालखंड का आरंभ सन 1918 तथा अंत 1938 माना गया है आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे आधुनिक कविता का तृतीय उत्थान माना है। क्योंकि लगभग सन 1915 के बाद द्विवेदी युग से अलग कुछ नए प्रकार के साहित्य की झलक देखने को मिलने लगी, इस कड़ी में सूर्यकांत त्रिपाठी द्वारा रचित ‘जूही की कली’ ( 1916 ) एवं पंत द्वारा रचित पल्लव की कुछ कविताएं 1920 तक छप चुकी थी।
1918 से 1938 के बीच इन 20 सालों में विपुल काव्य राशि का निर्माण हुआ। पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन की सुविधा होने से एवं साहित्य के सामाजिक उद्देश्य की व्यापक स्वीकृति कारण विभिन्न सजग एवं संवेदनशील व्यक्तियों ने काव्य रचना की ।
एक ओर जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत जैसे साहित्य साधक थे तो वहीं दूसरी ओर माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा, बच्चन, नरेंद्र शर्मा एवं अंचल जैसे रचनाकार जिन्होंने साहित्य के साथ-साथ सक्रिय आंदोलनों में भी भाग लिया और साहित्य को जमीनी स्तर से जोडा़।
छायावाद
एवं रहस्यवाद –
छायावाद के अर्थ को समझने के लिए सबसे पहले हमें उस समय काल में घटित प्रवत्तियो को जानने का प्रयास करना चाहिए, ।
छायावाद शब्द के अर्थ निर्णय मे विवाद है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे सीमित अर्थ में एक शैली विशेष माना है जिस के लक्षण प्रतीक- विधान ,विरोध -चमत्कार ,विशेषण- विपर्यय ,मानवीकरण आदि है । छायावाद के व्यापक अर्थ में शुक्ल जी ने रहस्यवाद को सम्मिलित माना है। परंतु प्रसाद जी छायावाद में स्वानुभूति की विवृत्ति पर बल देते हैं ।
वर्तमान में छायावाद और रहस्यवाद को स्वतंत्र स्वीकार किया जाता है जहां तक
भाषा शैली की बात है तब छायावाद और रहस्यवाद में समानता पाई जाती है परंतु विषय
वस्तु के दृष्टिकोण से रहस्यवादी भावना का आलंबन अमूर्त विषय होता है ,और
छायावाद में विषय लौकिक होता है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने श्रीधर पाठक ( "कुररी के प्रति")को आधुनिक काव्य धारा में सच्चे स्वच्छंदतावाद के रूप में स्वीकार किया है क्योंकि छायावाद की एक प्रवृत्ति स्वच्छंदतावादी भी है, इसलिए इन्हें पहले छायावादी कवि के रूप में भी स्वीकार किया जाता है ।श्रीधर पाठक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने प्रकृति के रूढ़िबद्ध रूपों तक ही ना रह कर अपनी आंखों से भी उनके रूपों को देखा, एवंं स्वछंदता का सटीक परिचय दिया।
विरासत , प्रभाव एवं भाषा -
अंग्रेजी के स्वच्छंदतावाद काव्य पर कई शताब्दियों तक कठोर धार्मिक नैतिक तथा काव्य शास्त्रीय अनुशासन रहा था स्वच्छता वादी कवियों ने इन बंधनों को तोड़कर स्वतंत्र रूप से कविता करना शुरू किया।
द्विवेदी युग में नैतिक दृष्टि की प्रधानता थी इसका विरोध छायावादी युग में दिखाई देता है परंतु छायावादी काव्य की प्रवृत्तियां रीतिकालीन कव्य प्रवत्तियो से मिलती-जुलती हैं। तो क्या यह कहा जाए कि प्रणय की स्वच्छंद अभिव्यक्ति छायावादी काव्य की क्रांतिकारी प्रवृत्ति नहीं थी बल्कि यह पहले से विद्यमान थी !
परंतु यहां पर यह स्पष्ट है कि रीतिकाल एवं छायावादी काल में अभिव्यक्ति(काव्य) की भाषा मे पर्याप्त अंतर है। छायावादी खड़ी बोली एवं द्विवेदी कालीन खड़ी बोली में भी अंतर देखने को मिलता हेै, द्विवेदी युग में खड़ी बोली का पूर्ण विकास नहीं हुआ था जो हमें छायावादी युग में देखने को मिलता है।
प्रवत्तियाँँ एवं विशेषताएं -
छायावादी कवियों ने प्रधान रूप से प्रणय की अनुभूति को व्यक्त किया है ।इनकी कविताओं में विविध मानसिक अवस्थाओं जैसे -आशा , आवेग, तल्लीनता ,निराशा ,पीड़ा, स्मृति ,विषाद आदि का मार्मिक चित्रण किया गया है। काव्य रूपों की दृष्टि से छायावादी काव्य अत्यंत समृद्ध है इसमें आँसू, तुलसीदास जैसे खंडकाव्य एवं कामायनी जैसे संवेदात्मक महाकाव्य तथा ‘प्रलय की छाया’, ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘परिवर्तन’ जैसी लंबी कविताएं शामिल हैं ।
रचना परिमाण एवं अनुभूति की तीव्रता, सूक्ष्मता और अभिव्यंजना
शिल्प की दृष्टि से भी यह काल अत्यंत समृद्ध है । छायावादी काव्य में प्राचीन भारतीय परंपरा के तत्वों का समावेश ही नहीं अपितु इसमें परवर्ती काव्य के विकास को भी काफी दूर तक प्रभावित किया
है। आगे आने वाले कवियों के लिए यह काबरा से प्रतिस्पर्धा एवं प्रतिक्रिया का विषय
बनी।
भारतेंदु युग एवं द्विवेदी युग की अपेक्षा छायावादी युग में तत्कालीन समाज का बेहद गहरा प्रभाव पड़ा क्योंकि इस समय हम द्विवेदी एवं भारतेंदु युग से काफी कुछ सीख चुके थे और हमें एक नई भाषा प्राप्त हो चुकी थी जिसे हम खड़ी बोली कहते हैं इसका भरपूर प्रयोग छायावादी कविता में देखने को मिलता है ।
भारतेंदु हरिश्चंद्र अपने युग जीवन की दुर्दशा को देखकर सामाजिक सुधार के लिए केशव का स्मरण करते हैं “कहां करुणानिधि केशव सोए” तो वही द्विवेदी युग के हरिऔध और गुप्त जी कृष्ण और राम के चरित्र का सहारा लेकर देश सुधार की बात करते हैं।
हरिऔध एवं गुप्त की रचनाओं में द्विवेदी युगीन चेतना पूर्णता मुखर हो चुकी थी, द्विवेदी युग मे रीतिकालीन श्रंगार भावना का तीव्र विरोध ठोस यथार्थ के चित्रण का प्रबल आग्रह मिलता है यह छायावाद युग की निकटतम स्थिति है अतः छायावादी काव्य में द्विवेदी युगीन इतिवृत्त का भी विरोध देखने को मिलता हैं।
इस युग में दो
तरह की कविताएं सामने आ रही थी ,एक और भारत की
जनता को विदेशी शासन से मुक्त करने के लिए वीर से पूर्ण स्वतंत्रता संग्राम में कूद
पड़ने वाली कविता कही जा रही थी तो वहीं दूसरी ओर भारत की आंतरिक विषमताओं को दूर
करने के लिए देश के लोगों को जगाया जा रहा था । और इस भूमिका मे माखनलाल चतुर्वेदी
,रामनरेश त्रिपाठी, बालकिशन शर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान प्रमुख हैं।
“ क्या ? देख न सकती जंजीरों का गहना
हथकडियां क्यों ?वह ब्रिटिश राज का गहना .....”(‘ कैदी और कोकिला’. कविता, चतुर्वेदी)
वह भिखमंगे अरे पराजित ओ मजलूम अरे चिरदोहित,
तू अखंड भंडार शक्ति का जाग अरे निद्रा सम्मोहित
प्राणों को तड़पाने वाली हुंकारों से जल थल भर दे
अंगारों के अंंबारों में अपना ज्वलित पतीला धर दें
आत्मविश्वास
का संचार करने के लिए कवियों ने अतीत की गरिमा का सजीव चित्रण किया
क्या यह वही देश है-
भीमार्जुन आदि का कीर्तिक्षेत्र
चिरकुमार भीष्म की
पताका ब्रह्मचर्य दीप्त
उड़ती
है आज भी यहां के वायुमंडल में
उज्जवल
अधीर और चिरनवीन ?
श्री
मुख से कृष्णा के सुना था जहां भारत ने
गीता
गीत सिंहनाद
मर्मवाणी
जीवन संग्राम की
सार्थक
समन्वय ज्ञान कर्म भक्ति योग का ?
.. (दिल्ली
कविता -निराला)
इस प्रकार कवियों ने वर्तमान को अतीत से जोड़कर उत्साह और महानता का उद्भव करने का प्रयास किया।
प्राचीन महापुरुषों के चरित्र का ज्ञान एवं अतीत के शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा सामाजिक जागरण में सहायक होते हैं। इस युग में यह भाव व्यक्त किया गया कि ईश्वर दीन दुखियों के हृदय में निवास करता है आतः हमारा प्रधान कर्तव्य होगा कि हम दबे - कुचले एवं दलित वर्ग का उद्धार करें।
इस आध्यात्मिकता और सामाजिकता का समन्वय रामनरेश त्रिपाठी ने अपनी एक कविता में
किया है।
मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू ,
मैं बाट जोहता था तेरे किसी चमन में।
बनकर किसी के आंसू मेरे लिए बहा तू,
मैं देखता तुझे था माशूक के बदन में।
रामनरेश
त्रिपाठी ने इस भाव को भी व्यक्त किया कि हमारा देश किसी और का अधिकार नहीं छीनना चाहता हम तो केवल स्वराज्य अपने देश के वर्तमान और भविष्य को बनाने का अधिकार
चाहते हैं । कुछ पंक्तिया-
करेंगे
क्या लेकर अपवर्ग ,हमारा
भारत ही सुख स्वर्ग ।
नहीं
है किसी लक्ष्य पर ध्यान,
चाहिए केवल स्वत्व समान।।
इसे तज कर क्या तरू निर्मूल,
करेंगे लेकर किंग सुख फूल।
प्रकृत पुरुषों का जीवन मूल ,चाहिए
केवल घर का रूल।।
बालकृष्ण शर्मा नवीन ने देश के युवकों को स्वतंत्रता के लिए मर मिटने की प्रेरणा दी ,कुछ पंक्तियां निम्नलिखित हैं-
है
बलिवेदी, सखे
प्रज्वलित मांग रही ईंधन क्षण क्षण
आओ
युवक लगा दो तो तुम अपने यौवन का ईंधन।
भस्मसात
हो जाने दो यह प्रबल उमंगे जीवन की
अरे
सुलगने दो बलिवेदी चढ़ने दो बलि जीवन की।
छायावाद कालीन प्रमुख राष्ट्रवादी कवि -
राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना को उजागर करने के लिए जो कवि उभर कर सामने आए उनमें माखनलाल चतुर्वेदी( हिमकिरीटिनी एवं हिमतरंगिणी) प्रमुख हैं ।
इन्होंने ‘प्रभा’ ,‘प्रताप’ एवं ‘कर्मवीर’ पत्रिकाओं का संपादन किया, यह अपनी राजनीतिक सक्रियता के कारण कई बार बंदी बनाए गए अतः जेल में उन्होंने अनेक कविताएं रची। चतुर्वेदी जी की रचनाओं में देश के प्रति प्रेम भावना दिखाई देती है।
सियारामशरण गुप्त - इनकी रचनाएं ‘इंदु’ पत्रिका एवं “सरस्वती” पत्रिका में छपा करती थी । प्रमुख रचनायें- मौर्यविजय, अनाथ, दूर्वादल, विषाद ,पाथेय, बापू ,दैनिकी, मृण्मयी ।
बालकृष्ण
शर्मा - “कुमकुम” 1939 ,इनका
पहला कविता संग्रह है। ‘अपलक’, ‘रश्मिरेखा’, ‘क्वासि’
तथा ‘हम विषपायी जनम के’
कुछ प्रमुख रचनाएं ।
सुभद्रा कुमारी चौहान - इनकी कविताएं ‘त्रिधारा’ और ‘मुकुल’ में संकलित है। मुख्यता सुभद्रा कुमारी चौहान ने दो तरह की कविताएं लिखी । प्रथम में वे कविताएं हैं, जिनमे राष्ट्रप्रेम की भावना है तथा दूसरे वर्ग में परिवारिक जीवन से संबंधित कविताएं हैं ।
रामनरेश त्रिपाठी , उदय शंकर भट्ट ,गया प्रसाद शुक्ल,
मैथिलीशरण गुप्त,
श्रीकांत त्रिपाठी निराला,
रामधारी सिंह दिनकर आदि प्रमुख है।
छायावादी कवि :-
छायावादी
युग के प्रमुख कवियों में “जयशंकर प्रसाद”, “सूर्यकांत त्रिपाठी निराला”' “सुमित्रानंदन
पंत” एवं “महादेवी वर्मा” जी है । इन्हें छायावाद के 'कवि चतुष्टय' के नाम से भी
जाना जाता है ,
तथा आरंभिक 3 कवि छायावाद के वृहतत्रयी श्रेणी मे है तथा लघुत्रयी मे महादेवी
वर्मा रामकुमार वर्मा और भगवती चरण वर्मा आते हैं।
जयशंकर प्रसाद (1889- 1937) -
प्रसाद
प्रारंभ में ब्रजभाषा में कविताएं लिखते थे बाद में उन्होंने खड़ी बोली को अपनाया कवि होने के साथ ही यह गंभीर चिंतक भी थे कामायानी में इन्होंने यंत्र और तर्क पर
आधारित समाज के साथ-साथ शैव दर्शन की अभिव्यक्ति भी की है। इनकी रचनाओं के बाद के
संस्करणों में कुछ नई कविताओं का समावेशन मिलता है। छायावादी प्रवृत्तियों के दर्शन
सबसे पहले इनकी 'झरना' संकलन में मिलते हैं इन्होंने बहुत सुंदरता के साथ-साथ सूचना
एवं मानसिक पक्ष को भी व्यक्त किया है
प्रसाद जी ने “ऑसू” को व्यक्तिगत
वेदना को भूलकर विश्व कल्याण की भावना के साथ संबंधित किया है यह एक स्मृति काव्य है
जिसकी भावभूमि स्थाई नहीं विकासशील है इसमें कवि ने अपने अतीत के साथ-साथ वर्तमान
को भी संयुक्त किया है। तो वही ‘लहर’’
में प्रसाद जी ने गीत कला का उत्कृष्ट उदाहरण दिया है,
इसमें गीतों के माध्यम से प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन है। ‘ प्रलय की छाया’ में
कवि ने ऐतिहासिक प्रसंगों की शक्तिशाली और मार्मिक अवधारणा की है।
“कामायनी”
प्रसाद जी की अंतिम रचना है, इसके विषय का आधार प्राचीन आख्यान है जिसमें मनु तथा
श्रद्धा के संयोग से मानव सभ्यता के प्रवर्तन का उल्लेख किया गया है। कवि ने चरित्रों
के माध्यम से मानव के विविध पक्षों जैसे चिंता, आशा, वासना, ईर्ष्या, संघर्ष, आनंद, आदि का चित्रण विभिन्न सर्गों में किया है।
कामायनी मनु और श्रद्धा कि केवल ऐतिहासिक कथा ही नहीं बल्कि इन पात्रों की व्यंजनाए भी इसमें मिलती हैं और इसे प्रसाद जी ने कामायनी की भूमिका में खुद
स्वीकार किया है।
कुछ प्रमुख
-
उर्वशी ,वनमिलन,
प्रेमराज्य (1909),अयोध्या
का उद्धार, शोकोच्छ्वास(1910),
कानन कुसुम,
प्रेम पथिक,
करुणालय(1913),
महाराणा का महत्व(1914),
झरना(1918),
आंसू(1925),
लहर (1933),कामायानी(1935)
।
Prashad ji |
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ -.
निराला जी का कवि के रूप में प्रबल विरोध हुआ और इसका कारण उनकी कविताओं की मौलिकता है उनके काव्य में विविधता के दर्शन होते हैं। निराला जी धुन के पक्के थे ।
जूही की कली का प्रकाशन सहित्य चिंतकों के लिए एक चुनौती बनी उसमें व्यक्त प्रणय के चित्र और मुक्त छंद का शक्तिशाली शिल्प तत्कालीन मान्यताओं से मेल नहीं खाती थी लेकिन वह सब की अपेक्षा करते हुए रचना करते रहे।
परिमल
विविधता से परिपूर्ण है इसमें गीत भी है मुक्त छन्द भी
और प्रणय गीत,तथा ओजपूर्ण रचनाये भी। परिमल और
गीतिका में प्रार्थना और वंदना के गीत भी मिलते हैं ,जो मध्यकालीन भक्ति से
जोड़े जा सकते हैं ।इनके अधिवास ,तुम और मै और पंचवटी- प्रसंग दर्शन प्रधान रचनाएं हैं।
‘ तुलसीदास’ में
कवि ने गोस्वामी तुलसीदास के माध्यम से भारतीय परंपरा के मूल्यों की प्रतिष्ठा
करने का प्रयास किया है इसमें एक घटना का वर्णन है जब तुलसीदास बिना बुलाए अपनी
पत्नी रत्नावली से मिलने के लिए उसके नए घर पहुंचे तब उसने उन्हें फटकारा जिसका
प्रभाव यह हुआ कि तुलसीदास गृहस्थ जीवन को त्याग कर राम की उपासना में लीन हो गए
राम की शक्ति पूजा
यह संपूर्ण छायावादी काव्य की उत्कृष्ट रचना थी इसमें ऐतिहासिक प्रसंग के द्वारा
धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष का चित्रण
किया गया है जिसमें राम को धर्म का प्रतीक और और रावण को अधर्म का प्रतीक माना गया
है कविता में अधर्म एक प्रचंड शक्ति के रूप में चित्र था जिसके सामने राम का साहस
कुंठित हो जाता है अतः अंत में कवि राम की शक्ति की मौलिक कल्पना करते हैं और इस
आराधना से धर्म ,अधर्म के विनाश के लिए सक्षम हो जाता है मौलिक कल्पना इस बात पर बल
देती है कि प्रसिद्ध सांस्कृतिक आदर्शों का युग अनुरूप संशोधन अनिवार्य है।
निराला के अधिकांश रचनाओं की भाषा संस्कृत
गर्वित है। कवि ने संपूर्ण पदावली के प्रयोग
द्वारा उपयुक्त लय और अर्थ गंभीरता की अभिव्यक्ति की है
प्रमुख रचनाएं – अनामिका(1923) ,परिमल(1930), गीतिका(1936), तुलसीदास(1938), कुकुरमुत्ता(1942), अणिमा(1943), बेला(1946), नए पत्ते(1946), अर्चना(1950), आराधना(1953), गीत-कुंज (1954) ,संध्यकाकली(1969)
Nirala ji |
अल्मोड़ा
जिले के कौसानी ग्राम में जन्मे पंत को प्रकृति ने बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया
प्रकृति के उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा । सुमित्रानंदन पंत के काव्य में
प्रकृति के मनोरम रूपों का मधुर और सरस चित्रण मिलता है।
इनकी पहली कविता गिरजे का घंटा किसकी रचना इन्होंने सन 1916 में की गुंजन इनका
अंतिम छायावादी काव्य संग्रह माना जाता। ऑसू की बालिका ,
पर्वत प्रदेश में पावस आदि कविताओं में कवि की जन्मभूमि का
प्राकृतिक सौंदर्य मिलता है तो वही
बादल और छाया जैसी कविताओं में विलक्षण कल्पना के दर्शन मिलते हैं
प्रमुख
रचनाएं - उच्छवास ,ग्रंथि
(1920) , वीणा
(1927), पल्लव(1928), गुंजन (1932), युगांत
(1936), युगवाणी
(1939), ग्राम्या (1940),
स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि(1947),
युगपत,
उत्तरा(1949), कला और बूढ़ा चांद (1959), अतिमा
(1955), लोकायतन(1964),
चिदंबरा.
Rastakvi Sumitranndan ji |
महादेवी वर्मा -
महादेवी वर्मा कवियत्री होने
के साथ-साथ एक कुशल चित्रकार भी थी और उनकी यह चित्रकारी उनकी कविताओं में भी
मिलती है। इनका अधिकांश काव्य संग्रह छायावादी युग का ही है।
कुछ प्रमुख रचनाएं - निहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा(1935), सांध्य गीत(1936) ,यामा(1940), दीपशिखा (1942),सप्तपर्णा(1960)
Mahadevi ji |
इस काल के अन्य कवियों के रूप में डॉ
रामकुमार वर्मा, उदय शंकर भट्ट, मोहनलाल वियोगी,
लक्ष्मी नारायण मिश्र ,जनार्दन
प्रसाद झा,
गोपाल सिंह नेपाली,
केदारनाथ मिश्र एवं आरती प्रसाद सिंह आदि हैं।
In english
This period was the era of uprooting the feudalist roots and free expression from the stereotypes.
Mainly this movement was started from France, after getting success in France, it gradually reached India via Germany, England. In India, this movement was given refuge by Rabindra Nath ji and it was carried forward, because this movement came from western countries, so in the initial period, the copy (shadow) of the Romantic poets of English was seen in it. Because of which it was called Romanticism or Chhayavadi, but later various researches were done on this name.
Chhayavad was such a period in literature in which the individual freely declared a new poem free from the old shackles. 'Literature is the philosophy of the contemporary society', so we can say that literature is influenced by the events and circumstances of the time. Then whether that event is social, economic or political, it will be a part of literature.
It is worth noting that if any event is happening in some time, then it is not the result of time at the same time, there is a historical role behind that event. Therefore, it would be logical to say that the role of Chhayavad, which begins in the second decade of the twentieth century, must have started to form from the Dwivedi era itself.
immediate historical circumstances
In the second decade of the 19th century, there was a stir in India as well as in various countries of the world because it was the period of world war which had started from the year 1914. During this, there was a lot of movement in the world stage, which is bound to have an impact on literature.
The shadowy era was the era of search for identity for India, due to slavery, the people had become obstinate, western education provided a new opportunity to the intellectuals of the country. The propagation of Christianity also had a deep impact on Indian society. Along with slavery, cultural invasion affected the thinkers more, after that the agitators like Raja Rammohan Roy, Dayanand Saraswati, Ramakrishna Paramhansa, Vivekananda, Tilak and Mahatma Gandhi came forward and He discovered the elements of his Indian tradition and tried to adapt it to the new life.
The opposition and rebellion of foreign rule is widely visible in the Chhayavadi poets, the root of which is the political and social reasons of the time. The Chhayavadi era played an important role in the development of Indians or is the era of modernization for India, but this process is due to its internal strength. The foreign rule came as a result of not being inspired. All the changes that took place in India were done by the British to run their governance system smoothly.
All the invaders who came to India before the British either went back after plundering or became residents of this country, but the British were not like that, their aim was to exploit our country and the growth of their country. So it is natural to have resentment in the Indian society.
On one hand there were literary seekers like Jaishankar Prasad, Suryakant Tripathi Nirala, Sumitranandan Pant, while on the other hand writers like Makhanlal Chaturvedi, Ram Naresh Tripathi, Balkrishna Sharma, Bachchan, Narendra Sharma and Anchal who participated in active movements along with literature and literature Connected to the ground level.
Chhayavad and Mysticism:-
To understand the meaning of Chhayavad, first of all we should try to know the trends that happened in that time period.
There is a dispute in the meaning of the word Chhayavad. Acharya Ramchandra Shukla has considered it as a special style in a limited sense, whose characteristics are symbol-law, protest-miracle, adjective-anagram, humanization etc. In the broader sense of Chhayavad, Shukla ji has considered mysticism to be included. But Prasad ji emphasizes on the nature of self-realization in Chhayavad.
At present, shadowism and mysticism are accepted as independent as far as language style is concerned, then there is similarity in shadowism and mysticism, but from the point of view of subject matter, the subject matter of mystic feeling is abstract, and in shadowism the subject is temporal.
Acharya Ramchandra Shukla has accepted Sridhar Pathak ( " Kurri ke prati ") as true Romanticism in the modern poetic stream, because there is a tendency of Chhayavad to be romantic, so he is also accepted as the first Chhayavadi poet. Pathak was such a person who did not live up to the stereotyped forms of nature, but saw their forms with his own eyes, and gave a precise introduction to the freedom.
Heritage, Influence and Language -
Romantic poetry in English had been a strict religious, ethical and poetic discipline for many centuries. Sanitary poets broke these bonds and started poetry independently.
In the Dwivedi era, there was a predominance of moral vision, its opposition is visible in the Chhayavadi era, but the trends of Chhayavadi poetry are similar to the ritualistic poetic trends. So should it be said that the free expression of love was not a revolutionary trend of Chhayavadi poetry, but it was already existing!
But here it is clear that there is a substantial difference in the language of expression (poetry) in the Ritikal and Chhayavadi period. There is also a difference between Chhayavadi Khari Boli and Dwivedi era Khari Boli, in the Dwivedi era, there was no full development of Khari Boli, which we get to see in the Chhayavadi era.
: Limit:-
The beginning of this period is considered to be 1918 and the end 1938, Acharya Ramchandra Shukla has considered it as the third rise of modern poetry. Because after about 1915, some new types of literature started to be seen apart from the Dwivedi era, in this episode 'Juhi Ki Kali' (1916) composed by Suryakant Tripathi and some poems of Pallava composed by Pant were published till 1920.
Trends and Features -
chhayavadi poets have mainly expressed the feeling of love. In their poems, various mental states like 'hope', 'impulse,' engrossment, despair, pain, 'memory', nostalgia etc. have been depicted poignantly. Chhayavadi poetry is very rich in terms of poetic forms, it includes tears, Khandkavya like Tulsidas and sentimental epics like Kamayani and long poems like 'Chhaya of Pralay', 'Shakti Puja of Ram' and 'Parivartan'.
This period is also very rich in terms of composition quantity and intensity of feeling, subtlety and expressive craft. Chhayavadi poetry not only incorporates elements of ancient Indian tradition, but it has also influenced the development of later poetry to a great extent. It became a subject of competition and reaction from Kabra for the coming poets.
Bharatendu, Dwivedi and Chhayavad era-
In the Chhayavadi era, the society had a very deep impact as compared to the Bhartendu era and Dwivedi era, because at this time we had learned a lot from Dwivedi and Bhartendu era and we had got a new language which we call Khari Boli, its full use is Chhayavadi. can be seen in poetry.
Bhartendu Harishchandra, seeing the plight of his era life, remembers Keshav for social reform, “Where Karunanidhi Keshav slept”, the same Harioudh and Gupta of Dwivedi era talk about reforming the country by taking the help of the character of Krishna and Ram.
n the works of Harioudh and Gupta, the consciousness of the Dwivedi era had become fully articulated, in the Dwivedi era, there is a strong opposition to the sentiment of ritual adornment, there is a strong insistence on the depiction of concrete reality. are seen.
In this era, two types of poems were coming out, one and a poem that jumped into the full freedom struggle to free the people of India from foreign rule, on the other hand, to remove the internal disparities of India. For this the people of the country were being awakened. And in this role Makhanlal Chaturvedi, Ramnaresh Tripathi, Balkishan Sharma, Subhadra Kumari Chauhan are prominent.
kya ? dekh na sakatee janjeeron ka gahana
thakadiyaan kyon ?vah british raaj ka gahana .....”(‘ kaidee aur kokila’. kavita, chaturvedee)
vah bhikhamange are paraajit o majaloom are chiradohit,
too akhand bhandaar shakti ka jaag are nidra sammohit
praanon ko tadapaane vaalee hunkaaron se jal thal bhar de
angaaron ke anmbaaron mein apana jvalit pateela dhar den
Poets vividly portray the dignity of the past to infuse confidence.
kya yah vahee desh hai-
bheemaarjun aadi ka keertikshetr
chirakumaar bheeshm kee pataaka brahmachary deept
udatee hai aaj bhee yahaan ke vaayumandal mein
ujjaval adheer aur chiranaveen ?
shree mukh se krshna ke suna tha jahaan bhaarat ne
geeta geet sinhanaad
marmavaanee jeevan sangraam kee
saarthak samanvay gyaan karm bhakti yog ka
.. (dillee kavita -niraala)
In this way the poets tried to create enthusiasm and greatness by connecting the present with the past.
Knowledge of the character of ancient great men and the prestige of the eternal values of the past are helpful in social awakening. In this age, the feeling was expressed that God resides in the heart of the oppressed, therefore our main duty will be to save the downtrodden and downtrodden.
Ramnaresh Tripathi also expressed this feeling that our country does not want to snatch the rights of anyone else, we only want Swarajya to make the present and future of our country. few lines-
karenge kya lekar apavarg ,hamaara bhaarat hee sukh svarg .
nahin hai kisee lakshy par dhyaan, chaahie keval svatv samaan..
ise taj kar kya taroo nirmool, karenge lekar king sukh phool.
prakrt purushon ka jeevan mool ,chaahie keval ghar ka rool..
Prominent nationalist poet of Chhayavad period -
Makhanlal Chaturvedi (Himkiritini and Himtarangini) are the main works of the poets who emerged to highlight the national and cultural consciousness.
He edited the magazines 'Prabha', 'Pratap' and 'Karmaveer', he was imprisoned many times due to his political activism, so he composed many poems in jail. In the works of Chaturvedi, the feeling of love for the country is visible.
Siyaramsharan Gupta - His works were published in 'Indu' magazine and 'Saraswati' magazine. Major compositions- Mauryavijay, Orphan, Durvadal, Nostalgia, Pathey, Bapu, Dainik, Mrinmayi.
Balkrishna Sharma - "Kumkum" 1939 is his first collection of poems. Some of the major works are 'Apalak', 'Rashmirrekha', 'Kwasi' and 'Hum Vishpayi Janam Ke'.
Subhadra Kumari Chauhan - Her poems are compiled in 'Tridhara' and 'Mukul'. Mainly Subhadra Kumari Chauhan wrote two types of poems. In the first there are those poems, in which there is a feeling of patriotism and in the second category there are poems related to family life.
Ramnaresh Tripathi, Uday Shankar Bhatt, Gaya Prasad Shukla, Maithilisharan Gupta, Shrikant Tripathi Nirala, Ramdhari Singh Dinkar etc. are prominent.
Chhayavadi poet
- "Jaishankant Prasad" in the main poets of the chhayavadi era, "Suryakant Tripathi is unique" "Sumitranandan Pant" and "Mahadevi Verma". They are also known as the 'poet quadruple' of shadowism, and the early 3 poet is in the large range of shadowism and in the smaller Mahadevi Verma Ramkumar Verma and Bhagwati Phase Verma come.
Jaishankar Prasad:- (1889- 1937) - Prasad initially wrote poems in Brajbhasha, later he was adopting vertical bid and he was also a serious thinker, in Kamiyani, he has along with the society based on the instrument and logic. Some new poems in the subsequent versions of their compositions are found in the philosophy of the shadow trends, first of all, they have expressed a very beautiful information and mental party, Prasad ji has given personal pain to "Ou" So in the same 'wave ", Prasad has given excellent example of song art, it is described through the beauty of nature through songs. The poet has made a powerful and poignant concept of historical events in 'Shadings'.
The "Kamayani" is the last composition of Prasad, its subject is ancient narrative, in which the enforcement of human civilization has been mentioned with manu and reverence. The poet has given the illustrations of various sides of humans, such as concern, hope, lust, jealousy, struggle, enjoyment, etc. through characters. Kamayani Manu is not only a historical story, but the dishes of these characters also get it and it has accepted ourselves in the role of Camary. Some prominent - Urvashi, Vanmilan, Ravrajya (1909), salvation of Ayodhya, Shotkhwas (1910), Kanan Kusum, Prem Pathik, Kamalaya (1913), Importance of Maharana (1914),
Suryakant tripathi 'nirala'
Nirala ji was strongly opposed as a poet and the reason for this is the originality of his poems, diversity is seen in his poetry. Nirala ji was firm to the tune. The publication of Juhi's bud became a challenge for the literary thinkers, the pictures of love expressed in it and the powerful craft of free verse did not match with the then beliefs, but he kept on composing expecting all.
Parimal is full of variety, it also has songs, free verses and love songs, and also powerful compositions. Songs of prayer and veneration are also found in Parimal and Geetika, which can be linked to medieval devotion. Their Adhivas, Tum and Main and Panchavati-Paramsana are philosophy-oriented compositions.
In 'Tulsidas', the poet has tried to establish the values of Indian tradition through Goswami Tulsidas, it describes an incident when Tulsidas reached his new home to meet his wife Ratnavali uninvited, then he reprimanded her whose effect was this. It happened that Tulsidas renounced the householder life and got absorbed in the worship of Rama.
Rama's Shakti Worship This was a masterpiece of the entire shadowy poetry, in which the struggle between religion and adharma has been depicted through historical context, in which Rama is considered a symbol of religion and Ravana is considered a symbol of unrighteousness. As was the picture in front of which Rama's courage gets frustrated, so in the end sometimes imagine the originality of Rama's power and by this worship Dharma becomes capable of the destruction of adharma. The original imagery emphasizes that the famous Age-appropriate modification of cultural ideals is essential.
The language of most of Nirala's compositions is Sanskrit, it is found in the eyes of the society, the poet has brought appropriate use of the entire phraseology and has expressed the seriousness of the meaning.
Major compositions – Anamika(1923), Parimal(1930), Geetika(1936), Tulsidas(1938), Mushroom(1942), Anima(1943), Bela(1946), New leaves(1946), Archana(1950), Aradhana (1953), Geet-Kunj (1954), Sandhyakakali(1969)
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