'जल मे जीवन' :- कितना सार्थक!
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भारत देश ...
जहां पर जल को 'जीवन' कहा जाता है, जो वैश्विक स्तर पर सत्य भी है परंतु इस "जीवन" की स्थिति में हमारे देश और विदेशों में कितना अंतर हैं। हमारे देश में नदियों का पानी दिन प्रतिदिन प्रदूषण की चपेट में आता जा रहा है और इसका श्र्येय किसी एक को नहीं वरन पूरे देश की जनता को जाता हैं ।
हमारे घरों से जाने वाला अपशिष्ट एवं कारखानों से निकलने वाला रसायनिक एवं प्रदूषित जल तथा इसी प्रकार के विभिन्न स्रोतों से निकलने वाला वेस्टेज, जिसका संबंध सीधे तौर पर नदियों से, नदी के जल को अत्यंत हानि पहुंचाता है जिसका सीधा असर हमारे पर्यावरण एवं स्वास्थ्य पर पड़ता हैं।
इन सभी विभिन्न कारणों से हमारे नदियों में बहने वाला जल ,जिस की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है, कुछ नदियाँँ ऐसी भी हैं जिनमें ऑक्सीजन की मात्रा तय सीमा से बहुत ज्यादा कम है, यहां तक की यमुना नदी में यह मात्रा शून्य है।
एक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन, हमारे पर्यावरण अर्थात पेड़ पौधों से मिल जाती है। परंतु जल में रहने वाले जीव जंतु एवं विभिन्न प्रकार के छोटे-छोटे पौधे, जो पारिस्थितिकी के एक वृहद तंत्र का निर्माण करते हैं , उनके जीवित रहने के लिए हम लोगों ने जल में मिलने वाली ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा को लगभग समाप्त कर दिया है, और इस तरह से हमने उनके जीवन को अथवा एक वृहद परिस्थितिकी तंत्र को समाप्त करने का प्रयास किया है।
biological oxygen demand( BOD)
वैश्विक स्तर पर जल की गुणवत्ता की जांच करने के लिए एक मानक निर्धारित किया गया है जिसे 'BOD' कहते है यह बताता है कि जल की प्रति लीटर मात्रा में कितनी ऑक्सीजन घुली है ।जिसके आधार पर यह निर्धारित किया जाता है कि यह जल उपयोग में लाने योग्य है अथवा नहीं ।
एक रिपोर्ट -
For more information and latest report visit: www.cpcbenvis.nic.in
वर्तमान समय में हमें हिंदू प्रथाओं, परंपरागत रीति रिवाजों एवं पांडित्य में उलझे कर्मकांडों में सुधार करने की जरूरत है ।"हिंदू" इसलिए क्योंकि अधिकतम कर्मकांड इसी धर्म के पहलू में हैं ।पुराने समय में विज्ञान का इतना विकास नहीं हुआ था, फिर भी प्राचीन काल के विद्वानों ने ऐसे नियमों का संपादन किया जो आज भी प्रासंगिक है।
प्राचीन समय में आज के समान खतरनाक रसायन एवं विभिन्न प्रकार के हानिकारक वस्तुओं का निर्माण नहीं हुआ था। उस समय ना ही यह सूक्ष्म पॉलिथीन थी और ना ही यह औद्योगिक रसायन साबुन, कॉस्मेटिक्स, वाशिंग पाउडर इत्यादि। फिर भी नदियों को स्वच्छ बनाए रखने के लिए नदियों का दैवीयकरण किया गया एवं उन सभी चीजों का मानवीकरण किया गया जिन्हें सुरक्षित बनाए रखना था -जैसे तुलसी ,पीपल एवं विभिन्न पेड़ पौधे और इन्हें धर्म से जोड़ा गया क्योंकि उस समय धर्म शीर्ष पर था तथा लोगों की धर्म पर आस्था थी और धर्म के नाम पर लोग अपने कर्तव्यों का बाखूबी रुप से पालन करते थे । परंतु आज का दौर विज्ञान का परिवर्तित दौर है, और इस परिवर्तन को हमें समझना चाहिए
वर्तमान समय , प्राचीन समय से बिल्कुल ही बदल चुका है । अतः हमें भी उस प्राचीन समय से हटकर आज के समय के अनुसार सोचना होगा, कुछ ऐसे नियम बनाने होंगे जो प्राकृतिक संसाधनों के साथ हो रहे छेड़छाड़ को रोक सके।
21वीं शताब्दी में वस्तुओं एवं कल कारखानों पर रोक लगाना औचित्य नहीं है और यह मुनासिब भी नहीं क्योंकि व्यक्ति दैनिक वस्तुओं के आधीन हो चुका है। एक लंबे अर्से से वस्तुओं के साथ संबंध रहने के कारण उन्हें सामाजिक दायरे से अलग करना कष्टदायक हो सकता हैं अतः हमें ऐसे नियमों की आवश्यकता पड़ेगी जो सामाजिक संतुलन बनाए रखते हुए प्राकृतिक सम्पदा का संरक्षण कर सकें।
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